पृथ्वी दिवस की प्रतिज्ञा – स्थायी और स्वदेशी पुनर्जीवन

पृथ्वी दिवस की प्रतिज्ञा – स्थायी और स्वदेशी पुनर्जीवन

हमारी पृथ्वी और हिंसा बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है. महामारी और बीमारियां प्रकृति की ओर से सुधर जाने की चेतावनी है. इससे पहले कि यह पृथ्वी नष्ट हो जाए हमें पर्यावरण को बिगाड़ने के मार्ग को छोड़ कर एक नई अर्थ व्यवस्था और नई दुनिया बनानी होगी.
22 अप्रैल लॉकडाउन का दिन नई दिल्ली और शायद दुनिया के लिए ऐतिहासिक माना जायेगा क्यों कि 1970 के बाद यह सबसे स्वच्छ पृथ्वी दिवस होगा. जॉन मैककॉनेल, जिनकी याद में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है, विषैले बादलों और वाष्प में आई कमी को देख स्वर्ग में मुस्कुरा रहे होंगे. बढ़ी हुई ऑक्सीजन ने स्वर्गदूतों को भी खुशनुमा कर दिया होगा, लेकिन लौकिक घटनाएं एक तरफ, क्या हम अपने ग्रह का संरक्षण कर सकते हैं? प्रतिज्ञा करें कि हवा और पानी स्वच्छ रहे और अर्थव्यवस्था भी खिली रहे.
 
आत्मनिरीक्षण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ’प्रकृति पर विजय’ पाने के उत्साह में हमने हमारे ग्रह-मंडल को विनाश के कगार पर ले आया है. मानव जीवन के लिए परमाणु युद्ध के बाद पर्यावरण का ह्रास होना सबसे बड़ा खतरा है जिसका सबसे गंभीर परिणाम भू-राजनीति पर हो सकता है. नोअम चोमस्की ने हाल ही में लोकतंत्र पर बोलते हुए कहा कि जल संसाधनों को लेकर भारत और पाकिस्तान परमाणु युद्ध भी कर सकते हैं.
वैसे भी हमने बकरा तो हलाल कर ही दिया है और यह पृथ्वी और हिंसा बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है. महामारी और बीमारियां प्रकृति की ओर से सुधर जाने की चेतावनी है. इससे पहले कि यह पृथ्वी नष्ट हो जाए हमें पर्यावरण को बिगाड़ने के मार्ग को छोड़ कर एक नई अर्थ व्यवस्था और नई दुनिया बनानी होगी.
हम यह नई दुनिया कैसे बनाएं? क्या हम भौतिक दुनिया का त्याग कर दें, अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ दें, प्रौद्योगिकी से रहित जीवन चुन लें और जंगल में एक साधू का जीवन जीने लगें? नहीं. कोरोना वायरस हालांकि एक विकट आपदा है, लेकिन यह हमें अंधाधुन्द खपत को कम करने और एक नए प्रतिमान को फिर से स्थापित करने का अवसर देती है, जहां हवा स्वस्थ हो, पानी साफ हो और पक्षी हमारे शहरों में फिर से गाते हो जाएं. जलवायु परिवर्तन और विनाश से बचने के लिए, हमें पांच सिद्धांतों को अपनाने की आवश्यकता है – कम उपभोग करें, पुन: उपयोग करें, पुनर्जीवित करें, स्वदेशी और कृषि-पारिस्थितिकी को हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था में वापस ले आएं. हमें भारत के और विश्व के पुनर्निर्माण के लिए एक सशक्त हरियाली अर्थव्यवस्था की जरूरत है जो प्रदुषण कम करे, चक्रीय हो और पुनर्जीवित हो सके.
 
पिछली सदी के उत्तरार्ध में हमने टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल पृथ्वी के विनाश के लिए किया. अब हमें इन दोनों में दोस्ती कराने की जरूरत है. औद्योगिक क्रांति 4.0 को प्रदूषण मुक्त, चक्रीय और पुनर्जीवित करने वाली टेक्नोलॉजी से लानी होगी. लेकिन इसकी शुरुआत कहां से हो? हम इस यात्रा की शुरुआत अपने जीवन में पृथ्वी के बारे में जागरूकता लाने से करें. पृथ्वी सजीव है. वह केवल धूल और मिट्टी नहीं, पानी या पहाड़ नहीं जिसका खनन किया जाए.
 
वह हमारे जरिए इस जीवित ग्रह में रहती है. हमें अपनी भूमि, अपने पहाड़ों या मिट्टी के साथ फिर से जुड़ना होगा और पृथ्वी के गुनगुनाते दिल को महसूस करना होगा. पृथ्वी जीवित है, और उसके दिए उपहार भी जीवित हैं, हमें उनका सम्मान करना होगा.
एक बार यह चेतना हममें आ जाती है, तब हमारा अगला कदम इस ग्रह पर हमारी छाप को कम करना होगा. हमारे द्वारा खरीदी गई प्रत्येक क्रिया या उत्पाद का इस पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है. फिर भी हमारी सफलता के सभी मानदंड जैसे कि बड़े घर, कई कारें, आदि पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं. पानी, ईंधन और बिजली की खपत को कम करना न केवल ‘स्मार्ट’ है बल्कि किफायती भी है.
 
हमें विकल्प की खोज के लिए उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था को बंद करने की आवश्यकता है. पृथ्वी के पास सीमित संसाधन हैं और प्रत्येक अपव्यय के साथ हम भावी पीढ़ी के हक के संसाधनों को लूटते हैं. हमें उन उत्पादों को खरीदने या कम करने की आवश्यकता है जो अन्य मनुष्यों और ग्रह का शोषण करते हैं. याद रखें, हर बार जब आप कुछ खरीदते हैं तो सोचिये क्या मुझे वास्तव में इसकी आवश्यकता है? क्या यह मुझे और पृथ्वी को नुकसान पहुंचाता है?
 
उपभोग कम करने का सबसे आसान तरीका है वस्तुओं का पुनरुपयोग करना. हम इसकी शुरुआत बेकार में बहाए जाने वाले पानी को पौधों को सींचने में, कपड़ा धोने में, बर्तन साफ करने में कर सकते हैं या पुराने कपड़ों को रजाई बनाने में कर सकते हैं.
भारत चीजों के पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण के नए नए विचारों से भरा है. व्यक्तिगत रूप से, हम कचरे को अलग करते हैं और हमने महीनों तक रसोई के कचरे को बाहर नहीं फेंका है, इसके बजाय हम खाद बनाते हैं या इसे सड़क पर गाय को खिलाते हैं.
 
एक उर्वरक के रूप में मूत्र का शहरी बागानों के लिए पुन: उपयोग हो सकता है क्यों कि यह यूरिया और फॉस्फेट से समृद्ध है. किसी चीज के लिए जितना संभव हो उतना कम बिगाड़ हो सकता है, असंख्य पुनरावृत्ति हो सकती है, इसलिए कुछ फेंकने से पहले, एक मिनट रुक कर सोचें कि आप इसे किसी अन्य तरीके से कैसे उपयोग कर सकते हैं?
 
किसी दो नकारात्मक उपभोग को छोड़ने से पर्यावरण को एक बड़ा सकारात्मक लाभ हो सकता है. मनुष्य दुनिया के मालिक नहीं हैं, लेकिन प्रसिद्ध अमेरिकी संरक्षणवादी एल्डो लियोपोल्ड के शब्दों में, ‘भूमि के चाकर’ हैं. यह भूमि और धरती हमें अपने पूर्वजों से मिली है, लेकिन हमने केवल इसे हमारे वंशजों से उधार लिया है. यहां हमारा उद्देश्य हवा, पानी, मिट्टी को लूटना और तोड़ना नहीं है जबकि हम अपने घरों में एयर-प्यूरीफायर का आनंद लेते हैं. केवल कार्बन फुटप्रिंट के संदर्भ में कार्बन कमी, क्रियाओं / जलवायु क्रिया को देखना ही एकमात्र समाधान नहीं है|
 
हमें कार्बन को कम करने के नकारात्मक दृष्टिकोण के बदले पुनर्विकास के सकारात्मक और समग्र दृष्टिकोण को अपनाना होगा. हमारे प्रयास जीवाश्म-ईंधन-अर्थव्यवस्था को जैव-ईंधन या निम्न कार्बन तकनीक से बदलने के लिए नहीं होने चाहिए, बल्कि अर्थव्यवस्था और हमारे जीवन को पुनर्जीवित करने के लिए, सृजन के पुनर्योजी सिद्धांतों के साथ हमारे जीवन के प्रत्येक हिस्सों के लिए सिस्टम-आधारित दृष्टिकोण अपनाना होगा |
 
हमें अपने आर्थिक और सरकारी दृष्टिकोण को बायोमिमिक्री, जैव-दार्शनिक डिजाइन, पारिस्थितिक और वृत्ताकार अर्थशास्त्र से जोड़ना होगा. एक व्यक्ति के रूप में अपनी कार्रवाई को अलग-थलग नहीं बल्कि पूरे विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाले के रूप में सोचें. इस ब्रह्मांड को जोड़ने वाले तरीकों से कार्य करें और इसकी सहायता करें |
महात्मा गांधी ने सौ साल पहले हमारे लिए समाधान की रूपरेखा तैयार की थी. उन्होंने इसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था कहा था. यह एक ऐसी प्रणाली है जो आत्मनिर्भरता, प्रतिष्ठा और स्थानीय सहयोग पर आधारित है और पर्यावरण पर इसका न्यूनतम या सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. उन्होंने प्रत्येक गांव को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर मॉडल बनाने की कल्पना की और लिखा कि “यदि आवश्यक हो तो वह पूरी दुनिया से अपना बचाव कर सकता है |
 
यह अर्थव्यवस्था उत्पादन की विकेन्द्रीकृत प्रणाली पर आधारित थी, जो जरूत से ज्यादा उत्पादनों को दुसरे से साझा करती थी जो इसका उत्पादन नहीं कर सकती थी और वैसे ही दूसरों से लेती थी. यह समय है जब हम भारत में एक स्वदेशी 2.0 को स्वीकार करें जो पारिस्थितिक प्रौद्योगिकियों पर आधारित हो. यह कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है, जिसमें बहिष्कार या घृणा शामिल है, बल्कि आत्म उत्कर्ष के लिए एक सकारात्मक प्रयास है.
एक परिवार के रूप में और एक राष्ट्र के रूप में हमें वह सब कुछ पैदा करने की आवश्यकता है जो हम स्वयं कर सकते हैं. भोजन से ले कर दवाइयाँ तक सभी को उगाया या बनाया जाना चाहिए. हम में से हर एक के पास निर्णय लेने की शक्ति है, और सीधे शब्दों में कहें तो हमें स्थानीय और स्थायी उत्पादों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना चाहिए. स्वदेशी में निवेश करें. किसी वस्तु को खरीदने से पहले सोचें कि क्या हम इसके बदले कोई स्थाई और स्थानीय निर्मित वस्तू ले सकते हैं?
 
अब इस प्रतिज्ञा के अंतिम स्तंभ के लिए – कृषि-पारिस्थितिकी. मवेशी और पोल्ट्री फार्म सहित औद्योगिक खाद्य प्रणालियों ने न केवल मानव स्वास्थ्य को नष्ट कर दिया है, बल्कि पृथ्वी को कैंसर से ग्रस्त कर दिया है. किसानों की आत्महत्या, कैंसर, छोटे किसानों के खिलाफ मुकदमें , दुनिया भर के ग्रामीण समुदायों के साथ दुर्व्यवहार और जुर्म एक अंधाधुन्द उत्पादन प्रणाली के लक्षण मात्र हैं.
 
विषाक्त रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाओं से न केवल हमारी नदियाँ प्रदूषित हो गयीं हैं बल्कि कृषि उत्पादनों का उपभोग करने वाले लोगों को नपुंसकता से ले कर कैंसर तक की अनगिनत बीमारियाँ हो रहीं हैं. रासायनिक उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी का भारी बोझ कर दाताओं को उठाना पड़ रहा है.लेकिन क्या पर्यावरणवादी कृषि सक्षम हो सकती है? CIMMYT के प्रधान वैज्ञानिक एम एल जाट का कहना है यह संभव है.
 
उन्होंने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में लिखा है कि पर्यावरणवादी कृषि न केवल बेहतर स्वस्थ भोजन देता है बल्कि इससे हमारी खाद्य श्रंखला में रासायन और पेट्रोलियम पदार्थों की मात्र भी कम हो जाती है. इस पद्धति की कृषि ने शुद्ध पानी, कम कार्बन फुटप्रिंट, सामान्य नाइट्रोजन साइकिल के साथ स्वादिष्ट खाद्य सामग्री का उत्पादन दिया है.
 
तो हम इसकी शुरुआत कहाँ से करें? अपने घर से शुरुआत करें. अपने किचन गार्डन में गमलों में धनिया और साग उगाये हाँ याद रखे कि आप किसी प्रकार के रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करें. ऐसी चीज़ उगाएं जिसे आप खाते हों.
अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो किसी ऐसे किसान का संपर्क करें जो आपके लिए सजीव खेती द्वारा कोई खाद्यान्न उगा सकें. जो शहर में रह रहे हैं वे शहरी बगीचों की वकालत करें जहां से हम अपने खाद्यान्न से समन्वय महसूस कर सकें और अपने बच्चों को बता सके की उनका खाना फ्रिज से नहीं बल्कि पेड़ पौधों से आता है.
 
इन सभी सिद्धांतों के मूल में हरित अर्थतंत्र है जिसका आधार पुनर्जीवन, आर्थिक सशक्तिकरण और चक्रियता है. जब दुनिया आर्थिक अन्धकार में डूब रही है तब भारत को चाहिए कि वह टूटी आर्थिक और औद्योगिक व्यवस्था के मलबे में से बाहर निकल कर हरियाले अर्थतंत्र को अपना ले. जैसा कि महात्मा गाँधी ने कहा था स्वदेशी अर्थव्यवस्था हमारे खून में है. इस पृथ्वी दिवस पर हम वसुधैव कुटुम्बकम की प्रतिज्ञा लें और विज्ञानं के रस्ते पृथ्वी के पुनर्जीवन के पथ पर आगे बढ़ें.
 
लेखक- इन्द्र शेखर सिंह (निदेशक – नेशनल सीड एसोसिएशन ऑफ इंडिया)
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